रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड
प्रसंग
:अयोध्यावासियों सहित श्री भरत-शत्रुघ्न आदि का वनगमन हेतु गोमती के तीर पर विश्राम
भरत जी विश्वासपात्र सेवकों को नगर सौंपकर और
सबको आदरपूर्वक रवाना करके, तब श्री सीता-रामजी के चरणों को स्मरण
करके शत्रुघ्न के साथ दोनों भाई चले ।
श्री रामचन्द्रजी के दर्शन के वश में
हुए सब नर-नारी ऐसे चले मानो प्यासे
हाथी-हथिनी जल को तककर जा रहे हों। श्री
सीताजी-रामजी वन में हैं, मन में ऐसा विचार करके छोटे भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी पैदल
ही चले जा रहे हैं ।
।उनका स्नेह देखकर लोग प्रेम में मग्न हो गए और सब घोड़े, हाथी, रथों को छोड़कर
उनसे उतरकर पैदल चलने लगे। तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी भरत के पास जाकर
और अपनी पालकी उनके समीप खड़ी करके कोमल वाणी से बोलीं-
हे बेटा! माता बलैया लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ। नहीं तो सारा परिवार दुःखी हो जाएगा।
तुम्हारे पैदल चलने से सभी लोग पैदल चलेंगे। शोक के मारे सब दुबले हो रहे हैं, रास्ते के पैदल
चलने के योग्य नहीं हैं ।
माता की आज्ञा को सिर चढ़ाकर और उनके
चरणों में सिर नवाकर दोनों भाई रथ पर चढ़कर चलने लगे। पहले दिन तमसा पर वास करके दूसरा मुकाम गोमती के तीर पर किया ।
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कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते
हैं। भूषण और भोग-विलास को छोड़कर सब लोग श्री रामचन्द्रजी के लिए नियम और व्रत
करते हैं ।
हा :
* सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥
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चौपाई :
* राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि
चले तकि बारी॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥1॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥1॥
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*देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय
रथ त्यागे॥
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥2॥
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥2॥
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* तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय
परिवारु दुखारी॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू॥3॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू॥3॥
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* सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए
दोउ भाई॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥4॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥4॥
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दोहा :
* पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥188॥
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥188॥
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