रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड
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प्रसंग : भरतजी को वशिष्ठजी ने नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे....
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वशिष्ठ मुनि कहते
हैं राजा सब प्रकार से
बड़भागी थे। उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा
की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो ।
राजा ने राज पद तुमको दिया है। पिता का वचन तुम्हें सत्य
करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही श्री रामचन्द्रजी को त्याग दिया और
रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी ।
राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे, इसलिए हे तात! पिता के वचनों को सत्य करो! राजा की आज्ञा
सिर चढ़ाकर पालन करो, इसमें तुम्हारी सब तरह भलाई है ।
परशुरामजी ने पिता की आज्ञा रखी और माता को मार डाला, सब लोक इस बात के
साक्षी हैं। राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी। पिता की आज्ञा पालन
करने से उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ .जो अनुचित और उचित
का विचार छोड़कर पिता के वचनों का पालन करते हैं, वे (यहाँ) सुख और सुयश के पात्र होकर अंत
में इन्द्रपुरी (स्वर्ग) में निवास करते हैं .
राजा का वचन अवश्य सत्य करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन
करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा संतोष पावेंगे और तुम को पुण्य और सुंदर यश
मिलेगा, दोष नहीं लगेगा .
यह वेद में प्रसिद्ध है और स्मृति-पुराणादि सभी शास्त्रों
के द्वारा सम्मत है कि पिता जिसको दे वही राजतिलक पाता है, इसलिए तुम राज्य
करो, ग्लानि का त्याग कर दो। मेरे वचन को हित समझकर मानो इस बात
को सुनकर श्री रामचन्द्रजी और जानकीजी सुख पावेंगे और कोई पंडित इसे अनुचित नहीं
कहेगा। कौसल्याजी आदि तुम्हारी सब माताएँ भी प्रजा के सुख से सुखी होंगी .
जो तुम्हारे और श्री रामचन्द्रजी के श्रेष्ठ संबंध को जान
लेगा, वह सभी प्रकार से तुमसे भला मानेगा। श्री रामचन्द्रजी के लौट
आने पर राज्य उन्हें सौंप देना और सुंदर स्नेह से उनकी सेवा करना .
मंत्री हाथ जोड़कर कह रहे हैं- गुरुजी की आज्ञा का अवश्य ही
पालन कीजिए। श्री रघुनाथजी के लौट आने पर जैसा उचित हो, तब फिर वैसा ही
कीजिएगा .
चौपाई :
* सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥
यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥1॥
यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥1॥
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* रायँ राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ
कीन्हा॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥2॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥2॥
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* नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन
प्रवाना॥
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई॥3॥
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई॥3॥
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* परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥4॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥4॥
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दोहा :
* अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174॥
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174॥
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चौपाई :
* अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥
सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥1॥
सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥1॥
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* बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥2॥
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥2॥
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* सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं॥
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥3॥
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥3॥
* परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि॥
सौंपेहु राजु राम के आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥4॥
सौंपेहु राजु राम के आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥4॥
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दोहा :
* कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥175॥
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥175॥
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