रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड
प्रसंग : कौसल्या –भरत –संवाद
माता कौसल्या
कहती हैं कि श्री राम का मुख प्रसन्न था, मन में न आसक्ति थी, न रोष । सबको सब तरह से संतोष कराकर वे वन को चले। यह सुनकर
सीता भी उनके साथ लग गईं। श्रीराम के चरणों की अनुरागिणी वे किसी तरह न रहीं ।
सुनते ही
लक्ष्मण भी साथ ही उठ चले। श्री रघुनाथ ने उन्हें रोकने के बहुत यत्न किए, पर वे न रुके । तब श्री
रघुनाथजी सबको सिर नवाकर सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को साथ लेकर चले गये ।
श्री राम, लक्ष्मण और सीता
वन को चले गए। मैं न तो साथ ही गई और न मैंने अपने प्राण ही उनके साथ भेजे। यह सब
इन्हीं आँखों के सामने हुआ, तो भी अभागे जीव ने शरीर नहीं छोड़ा ।
अपने स्नेह की
ओर देखकर मुझे लाज नहीं आती; राम सरीखे पुत्र की मैं माता! जीना और मरना तो राजा ने
खूब जाना। मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्रों के समान कठोर है ।
कौसल्याजी के
वचनों को सुनकर भरत सहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानो
शोक का निवास बन गया ।
भरत, शत्रुघ्न दोनों
भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों
प्रकार से भरतजी को समझाया और बहुत सी विवेकभरी बातें उन्हें कहकर सुनाईं ।
भरतजी ने भी सब
माताओं को पुराण और वेदों की सुंदर कथाएँ कहकर समझाया। दोनों हाथ जोड़कर भरतजी
छलरहित, पवित्र और सीधी सुंदर वाणी बोले-
जो पाप
माता-पिता और पुत्र के मारने से होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने
से होते हैं, जो पाप स्त्री और बालक की हत्या करने से होते हैं और जो मित्र और राजा को जहर
देने से होते हैं-कर्म, वचन और मन से होने वाले जितने बड़े-छोटे पाप हैं, जिनको कवि लोग कहते हैं, हे विधाता! यदि
इस काम में मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लगें ।
जो लोग श्री हरि
और श्री शंकरजी के चरणों को छोड़कर भयानक भूत-प्रेतों को भजते हैं, हे माता! यदि
इसमें मेरा मत हो तो विधाता मुझे उनकी गति दे ।
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