शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

॰(175-180)वशिष्ठ-भरत संवाद

रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड

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प्रसंग : (1) भरतजी को वशिष्ठजी ने नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे....
      (2) कौसल्या – भरत संवाद
      (3) वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी 


वशिष्ठ मुनि के नीति और धर्म के वचन के बाद माता कौसल्या ने कहा कि गुरुजी की आज्ञा पथ्य रूप है। उसका आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन करना चाहिए। काल की गति को जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए ।.श्री रघुनाथजी वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज्य करने चले गए और हे तात! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो। हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मंत्री और सब माताओं के, सबके एक तुम ही सहारे हो ।

विधाता को प्रतिकूल और काल को कठोर देखकर धीरज धरो गुरु की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसी के अनुसार कार्य करो और प्रजा का पालन कर कुटुम्बियों का दुःख हरो ।
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भरतजी ने गुरु के वचनों और मंत्रियों के अनुमोदन को सुना, जो उनके हृदय के लिए मानो चंदन के समान शीतल थे। फिर उन्होंने शील, स्नेह और सरलता के रस में सनी हुई माता कौसल्या की कोमल वाणी सुनी ।
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सरलता के रस में सनी हुई माता की वाणी सुनकर भरतजी व्याकुल हो गए। उनके नेत्र कमल जल  बहाकर हृदय के विरह रूपी नवीन अंकुर को सींचने लगे। । उनकी वह दशा देखकर उस समय सबको अपने शरीर की सुध भूल गई। तुलसीदासजी कहते हैं- स्वाभाविक प्रेम की सीमा श्री भरतजी की सब लोग आदरपूर्वक सराहना करने लगे।

धैर्य की धुरी को धारण करने वाले भरतजी धीरज धरकर, कमल के समान हाथों को जोड़कर, वचनों को मानो अमृत में डुबाकर सबको उचित उत्तर देने लगे ।
गुरुजी ने मुझे सुंदर उपदेश दिया।  प्रजा, मंत्री आदि सभी को यही सम्मत है। माता ने भी उचित समझकर ही आज्ञा दी है और मैं भी अवश्य उसको सिर चढ़ाकर वैसा ही करना चाहता हूँ  क्योंकि गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से उसे अच्छी समझकर करना  चाहिए। उचित-अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है ।

आप तो मुझे वही सरल शिक्षा दे रहे हैं, जिसके आचरण करने में मेरा भला हो। यद्यपि मैं इस बात को भलीभाँति समझता हूँ, तथापि मेरे हृदय को संतोष नहीं होता ।

अब आप लोग मेरी विनती सुन लीजिए और मेरी योग्यता के अनुसार मुझे शिक्षा दीजिए। मैं उत्तर दे रहा हूँ, यह अपराध क्षमा कीजिए। साधु पुरुष दुःखी मनुष्य के दोष-गुणों को नहीं गिनते।
पिताजी स्वर्ग में हैं, श्री सीतारामजी वन में हैं और मुझे आप राज्य करने के लिए कह रहे हैं। इसमें आप मेरा कल्याण समझते हैं या अपना कोई बड़ा काम होने की आशा रखते हैं?

मेरा कल्याण तो सीतापति श्री रामजी की चाकरी में है, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया। मैंने अपने मन में अनुमान करके देख लिया है कि दूसरे किसी उपाय से मेरा कल्याण नहीं है ।
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यह शोक का समुदाय राज्य लक्ष्मण, श्री रामचंद्रजी और सीताजी के चरणों को देखे बिना इसका क्या मूल्य है? जैसे -वैराग्य के बिना ब्रह्मविचार व्यर्थ है ।
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रोगी शरीर के लिए नाना प्रकार के भोग व्यर्थ हैं। श्री हरि की भक्ति के बिना जप और योग व्यर्थ हैं। जीव के बिना सुंदर देह व्यर्थ है, वैसे ही श्री रघुनाथजी के बिना मेरा सब कुछ व्यर्थ है । मुझे आज्ञा दीजिए, मैं श्री रामजी के पास जाऊँ! । मेरा हित इसी में है। और मुझे राजा बनाकर आप अपना भला चाहते हैं, यह भी आप स्नेह की जड़ता (मोह) के वश होकर ही कह रहे है ।
कैकेयी के पुत्र, कुटिलबुद्धि, रामविमुख और निर्लज्ज मुझ से अधम के राज्य से आप मोह के वश होकर ही सुख चाहते हैं ।
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मैं सत्य कहता हूँ, आप सब सुनकर विश्वास करें, धर्मशील को ही राजा होना चाहिए। आप मुझे हठ करके ज्यों ही राज्य देंगे, त्यों ही पृथ्वी पाताल में धँस जाएगी ।
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मेरे समान पापों का घर कौन होगा, जिसके कारण सीताजी और श्री रामजी का वनवास हुआ? राजा ने श्री रामजी को वन दिया और उनके बिछुड़ते ही स्वयं स्वर्ग को गमन किया और मैं दुष्ट, जो अनर्थों का कारण हूँ, होश-हवास में बैठा सब बातें सुन रहा हूँ। श्री रघुनाथजी से रहित घर को देखकर और जगत्‌ का उपहास सहकर भी ये प्राण बने हुए हैं ।

इसका यही कारण है कि ये प्राण श्री राम रूपी पवित्र विषय रस में आसक्त नहीं हैं। ये लालची भूमि और भोगों के ही भूखे हैं। मैं अपने हृदय की कठोरता कहाँ तक कहूँ? जिसने वज्र का भी तिरस्कार करके बड़ाई पाई है ।कारण से कार्य कठिन होता ही है, इसमें मेरा दोष नहीं। हड्डी से वज्र और पत्थर से लोहा भयानक और कठोर होता है ।
कैकेयी से उत्पन्न देह में प्रेम करने वाले ये  प्राण अभागे हैं। जब प्रिय के वियोग में भी मुझे प्राण प्रिय लग रहे हैं, तब अभी आगे मैं और भी बहुत कुछ देखूँ-सुनूँगा ।
लक्ष्मण, श्री रामजी और सीताजी को तो वन दिया, स्वर्ग भेजकर पति का कल्याण किया, स्वयं विधवापन और अपयश लिया, प्रजा को शोक और संताप दिया और मुझे सुख, सुंदर यश और उत्तम राज्य दिया! कैकेयी ने सभी का काम बना दिया! इससे अच्छा अब मेरे लिए और क्या होगा? उस पर भी आप लोग मुझे राजतिलक देने को कहते हैं!
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कैकयी के पेट से जगत्‌ में जन्म लेकर यह मेरे लिए कुछ भी अनुचित नहीं है। मेरी सब बात तो विधाता ने ही बना दी है।  उसमें प्रजा और पंच  क्यों सहायता कर रहे हैं?
दोहा :
* कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥175
चौपाई :
* कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥1
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* बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हहीं सुत सब कहँ अवलंबा॥2
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* लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई॥
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू॥3
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* गुरु के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु॥
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी॥4
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छंद :
* सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरतु ब्याकुल भए।
लोचन सरोरुह स्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥

सोरठा :
* भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि॥176

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चौपाई :
* मोहि उपदेसु दीन्ह गुरु नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का॥
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥1
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* गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥2
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* तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई॥
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोष न जी कें॥3
* अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू॥
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू॥4
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दोहा :
* पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु॥177
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चौपाई :
* हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं॥
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥1
भावार्थ:-मेरा कल्याण तो सीतापति श्री रामजी की चाकरी में है, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया। मैंने अपने मन में अनुमान करके देख लिया है कि दूसरे किसी उपाय से मेरा कल्याण नहीं है॥1
* सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें॥
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्मबिचारू॥2
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* सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा॥
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई॥3
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* जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकाहिं आँक मोर हित एहू॥
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू॥4
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दोहा :
* कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज॥178
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चौपाई :
* कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू॥
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥1
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* मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू॥
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा॥2
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* मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू॥
बिन रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू॥3
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* राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे॥
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई॥4
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दोहा :
* कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहिं मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥179
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चौपाई :
* कैकेई भव तनु अनुरागे। पावँर प्रान अघाइ अभागे॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे॥1
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* लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा॥
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू॥2
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* मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकईं सब कर काजू॥
ऐहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका॥3
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* कैकइ जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं॥
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई॥4
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दोहा :
* ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180
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