रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड
पिताजी के लिए भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों
मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठजी आए और
उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया -सब लोग राजसभा में जाकर बैठ
गए। तब मुनि ने भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दोनों भाइयों को बुलवा भेजा। भरतजी को
वशिष्ठजी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे ।
पहले तो कैकेयी ने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ
मुनि ने वह सारी कथा कही। फिर राजा के धर्मव्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर त्याग कर प्रेम को निबाहा ।श्री रामचन्द्रजी के गुण,
शील और स्वभाव का वर्णन करते-करते तो मुनिराज के नेत्रों में जल भर
आया और वे शरीर से पुलकित हो गए। फिर लक्ष्मणजी और सीताजी के प्रेम की बड़ाई करते
हुए ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह में मग्न हो गए ।
मुनिनाथ न दुःखी होकर कहा- हे भरत! सुनो, भावी बड़ी
बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं।
ऐसा विचार कर किसे दोष दिया जाए? और व्यर्थ
किस पर क्रोध किया जाए? हे तात! मन में विचार करो। राजा दशरथ
सोच करने के योग्य नहीं है ।
सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिए, जो वेद नहीं
जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय भोग में ही लीन रहता है। उस राजा का सोच करना
चाहिए, जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान
प्यारी नहीं है ।
उस वैश्य का सोच करना चाहिए, जो धनवान
होकर भी कंजूस है और जो अतिथि सत्कार तथा शिवजी की भक्ति करने में कुशल नहीं है।
उस शूद्र का सोच करना चाहिए, जो ब्राह्मणों का अपमान करने
वाला, बहुत बोलने वाला, मान-बड़ाई चाहने
वाला और ज्ञान का घमंड रखने वाला है ।
पुनः उस स्त्री का सोच करना चाहिए जो पति को
छलने वाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छा चारिणी है। उस
ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिए, जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को
छोड़ देता है और गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता ।
उस गृहस्थ का सोच करना चाहिए, जो मोहवश
कर्म मार्ग का त्याग कर देता है, उस संन्यासी का सोच करना
चाहिए, जो दुनिया के प्रपंच में फँसा हुआ और ज्ञान-वैराग्य
से हीन है ।
वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है, जिसको
तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करने वाला है तथा माता, पिता,
गुरु एवं भाई-बंधुओं के साथ विरोध रखने वाला है ।
सब
प्रकार से उसका सोच करना चाहिए, जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है और वह तो सभी प्रकार
से सोच करने योग्य है, जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता ।
कोसलराज
दशरथजी सोच करने योग्य नहीं हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है।
हे भरत! तुम्हारे पिता जैसा राजा तो न हुआ, न है और न अब
होने का ही है ।
ब्रह्मा, विष्णु,
शिव, इन्द्र और दिक्पाल सभी दशरथजी के गुणों
की कथाएँ कहा करते हैं ।
भावार्थ:-हे तात! कहो, उनकी बड़ाई
कोई किस प्रकार करेगा, जिनके श्री राम, लक्ष्मण, तुम और शत्रुघ्न-सरीखे पवित्र पुत्र हैं?
चौपाई :
* पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥1॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥1॥
* बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई॥
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥2॥
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥2॥
* प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी॥
भूप धरमुब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥3॥
भूप धरमुब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥3॥
* कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥4॥
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥4॥
दोहा :
* सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥
चौपाई :
* अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू॥
तात बिचारु करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥1॥
तात बिचारु करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥1॥
* सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥2॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥2॥
* सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू॥
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥3॥
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥3॥
* सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी॥
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥4॥
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥4॥
दोहा :
* सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥
चौपाई :
* बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥1॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥1॥
* सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥2॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥2॥
* सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥3॥
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥3॥
* बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥4॥
दोहा :
* कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु॥173॥
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु॥173॥
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