रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड
प्रसंग
:अयोध्यावासियों सहित श्री भरत-शत्रुघ्न आदि का वनगमन
वशिष्ठ मुनि ने
भरत से कहा हे भरतजी! वन को
अवश्य चलिए, जहाँ श्री रामजी हैं, आपने बहुत अच्छी सलाह विचारी। शोक समुद्र में डूबते हुए सब
लोगों को आपने बड़ा सहारा दे दिया सबके मन
में कम आनंद नहीं हुआ ! मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक और मोर आनंदित हो रहे
हों। प्रातःकाल चलने का सुंदर निर्णय
देखकर भरतजी सभी को प्राणप्रिय हो गए । मुनि वशिष्ठजी की वंदना करके और भरतजी को
सिर नवाकर, सब लोग विदा लेकर अपने-अपने घर को चले।
जगत में भरतजी का जीवन धन्य है, इस प्रकार कहते
हुए वे उनके शील और स्नेह की सराहना करते जाते हैं ।
आपस में कहते हैं, बड़ा काम हुआ। सभी चलने की तैयारी करने लगे। जिसको भी घर की
रखवाली के लिए रहो, ऐसा कहकर रखते हैं, वही समझता है मानो मेरी गर्दन मारी गई ।कोई-कोई कहते हैं-
रहने के लिए किसी को भी मत कहो, जगत में जीवन का
लाभ कौन नहीं चाहता?
घर-घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियाँ सजा
रहे हैं। हृदय में (बड़ा) हर्ष है कि सबेरे चलना है। भरतजी ने घर जाकर विचार किया
कि नगर घोड़े, हाथी, महल-खजाना आदि
।सारी सम्पत्ति श्री रघुनाथजी की है। यदि उसक रक्षा की
व्यवस्था किए बिना उसे ऐसे ही छोड़कर चल दूँ, तो परिणाम में मेरी भलाई नहीं है, क्योंकि स्वामी का द्रोह सब पापों में शिरोमणि है ।
सेवक वही है, जो स्वामी का हित करे, चाहे कोई करोड़ों दोष क्यों न दे। भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र
सेवकों को बुलाया, जो कभी स्वप्न में भी अपने धर्म से नहीं
डिगे थे ।
भरतजी ने उनको सब भेद समझाकर फिर उत्तम
धर्म बतलाया और जो जिस योग्य था, उसे उसी काम पर
नियुक्त कर दिया। सब व्यवस्था करके, रक्षकों को रखकर भरतजी राम माता कौसल्याजी के पास गए ।
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प्रेम के तत्व को जानने वाल) भरतजी ने सब
माताओं को आर्त जानकर उनके लिए पालकियाँ
तैयार करने तथा सुखासन यान सजाने के लिए कहा ।
नगर के नर-नारी चकवे-चकवी की भाँति हृदय
में अत्यन्त आर्त होकर प्रातःकाल का होना चाहते हैं। सारी रात जागते-जागते सबेरा
हो गया। तब भरतजी ने चतुर मंत्रियों को बुलवाया
और कहा- तिलक का सब सामान ले चलो। वन में
ही मुनि वशिष्ठजी श्री रामचन्द्रजी को राज्य देंगे, जल्दी चलो। यह सुनकर मंत्रियों ने वंदना की और तुरंत घोड़े, रथ और हाथी सजवा दिए॥2॥
सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और
अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले ।
नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर
चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं ।
विश्वासपात्र सेवकों को नगर सौंपकर और
सबको आदरपूर्वक रवाना करके, तब श्री सीता-रामजी के चरणों को स्मरण
करके भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले ।
दोहा :
* अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल
कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥
चौपाई :
* भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि
सुनि चातक मोरा॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥1॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥1॥
* मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर
बिदा कराई॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥2॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥2॥
* कहहिं परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर
साजहिं साजू॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥3॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥3॥
* कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग
जीवन लाहू॥4॥
दोहा :
* जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु
भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥185॥
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥185॥
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चौपाई :
* घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ
परभात पयाना॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥1॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥1॥
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* संपति सब रघुपति कै आही। जौं बिनु जतन
चलौं तजि ताही॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई॥2॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई॥2॥
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* करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ
किन कोई॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥3॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥3॥
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* कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक
सो तेहिं राखा॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे॥4॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे॥4॥
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दोहा :
* आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान॥186॥
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान॥186॥
चौपाई :
* चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात
उर आरत भारी॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥1॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥1॥
* कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब
मुनि रामहि राजू॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥2॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥2॥
* अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले
प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥3॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥3॥
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* नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ
कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥4॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥4॥
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दोहा :
* सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥
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