रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड
प्रसंग : वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी
भरत जी कहते हैं
कि जिसे कुग्रह लगे
हों , फिर जो वायुरोग से पीड़ित हो और उसी को
फिर बिच्छू डंक मार दे, उसको यदि मदिरा पिलाई जाए, तो कहिए यह कैसा इलाज है!
कैकेयी के लड़के के लिए संसार में जो कुछ
योग्य था, चतुर विधाता ने मुझे वही दिया। पर 'दशरथजी का पुत्र' और 'राम का छोटा भाई' होने की बड़ाई मुझे विधाता ने व्यर्थ ही दी है ।
आप सब लोग भी मुझे टीका कढ़ाने के लिए कह
रहे हैं! राजा की आज्ञा सभी के लिए अच्छी है। मैं किस-किस को किस-किस प्रकार से
उत्तर दूँ? जिसकी जैसी रुचि हो, आप लोग सुखपूर्वक वही कहें ।
मेरी कुमाता कैकेयी समेत मुझे छोड़कर, कहिए और कौन कहेगा कि यह काम अच्छा किया गया? जड़-चेतन जगत् में मेरे सिवा और कौन है, जिसको श्री सीता-रामजी प्राणों के समान प्यारे न हों । जो
परम हानि है, उसी में सबको बड़ा लाभ दिख रहा है। मेरा
बुरा दिन है किसी का दोष नहीं। आप सब जो कुछ कहते हैं सो सब उचित ही है, क्योंकि आप लोग संशय, शील और प्रेम के वश हैं ।
श्री रामचंद्रजी की माता बहुत ही सरल
हृदय हैं और मुझ पर उनका विशेष प्रेम है, इसलिए मेरी दीनता देखकर वे स्वाभाविक स्नेहवश ही ऐसा कह रही हैं ।
गुरुजी ज्ञान के समुद्र हैं, इस बात को सारा जगत् जानता है, जिसके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है, वे भी मेरे लिए राजतिलक का साज सज रहे हैं। सत्य है, विधाता के विपरीत होने पर सब कोई विपरीत हो जाते हैं ।
श्री रामचंद्रजी और सीताजी को छोड़कर जगत्
में कोई यह नहीं कहेगा कि इस अनर्थ में मेरी सम्मति नहीं है। मैं उसे सुखपूर्वक
सुनूँगा और सहूँगा, क्योंकि जहाँ पानी होता है, वहाँ अन्त में कीचड़ होता ही है ।मुझे इसका डर नहीं है कि
जगत् मुझे बुरा कहेगा और न मुझे परलोक का ही सोच है। मेरे हृदय में तो बस, एक ही दुःसह दावानल धधक रहा है कि मेरे कारण श्री
सीता-रामजी दुःखी हुए ।
जीवन का उत्तम लाभ तो लक्ष्मण ने पाया, जिन्होंने सब कुछ तजकर श्री रामजी के चरणों में मन लगाया।
मेरा जन्म तो श्री रामजी के वनवास के लिए ही हुआ था। मैं अभागा झूठ-मूठ क्या
पछताता हूँ? सबको सिर झुकाकर मैं अपनी दारुण दीनता कहता हूँ। श्री
रघुनाथजी के चरणों के दर्शन किए बिना मेरे जी की जलन न जाएगी ।
मुझे दूसरा कोई उपाय नहीं सूझता। श्री
राम के बिना मेरे हृदय की बात कौन जान सकता है? मन में एक ही ।यही है कि प्रातः काल श्री रामजी के पास चल दूँगा
यद्यपि मैं बुरा हूँ और अपराधी हूँ और
मेरे ही कारण यह सब उपद्रव हुआ है, तथापि श्री रामजी मुझे शरण में सम्मुख आया हुआ देखकर सब अपराध क्षमा करके मुझ
पर विशेष कृपा करेंगे ।
श्री रघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल
स्वभाव, कृपा और स्नेह के घर हैं। श्री रामजी ने
कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया। मैं यद्यपि टेढ़ा हूँ, पर हूँ तो उनका बच्चा और गुलाम ही ।
आप पंच लोग भी इसी में मेरा कल्याण मानकर
सुंदर वाणी से आज्ञा और आशीर्वाद दीजिए, जिसमें मेरी विनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर श्री रामचन्द्रजी राजधानी को
लौट आवें ।
यद्यपि मेरा जन्म कुमाता से हुआ है और
मैं दुष्ट तथा सदा दोषयुक्त भी हूँ, तो भी मुझे श्री रामजी का भरोसा है कि वे मुझे अपना जानकर त्यागेंगे नहीं ।
भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे। मानो वे
श्री रामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्री रामवियोग रूपी भीषण विष से सब
लोग जले हुए थे। वे मानो बीज सहित मंत्र को सुनते ही जाग उठे ।
माता, मंत्री, गुरु, नगर के स्त्री-पुरुष सभी स्नेह के कारण बहुत ही व्याकुल हो गए। सब भरतजी को सराह-सराहकर
कहते हैं कि आपका शरीर श्री रामप्रेम की साक्षात मूर्ति ही है ।
हे भरत! आप ऐसा क्यों न कहें। श्री रामजी
को आप प्राणों के समान प्यारे हैं। जो नीच अपनी मूर्खता से आपकी माता कैकेयी की
कुटिलता को लेकर आप पर सन्देह करेगा,
वह दुष्ट करोड़ों पुरखों सहित सौ कल्पों
तक नरक के घर में निवास करेगा। साँप के पाप और अवगुण को मणि नहीं ग्रहण करती, बल्कि वह विष को हर लेती है और दुःख तथा दरिद्रता को भस्म
कर देती है ।
हे भरतजी! वन को अवश्य चलिए, जहाँ श्री रामजी हैं, आपने बहुत अच्छी सलाह विचारी। शोक समुद्र में डूबते हुए सब लोगों को आपने बड़ा
सहारा दे दिया ।
दोहा :
* ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी
मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥
चौपाई :
* कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि
दीन्ह मोहि सोई॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥1॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥1॥
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* तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब
कहँ नीका॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥2॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥2॥
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* मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के
कीन्ह भलाई॥
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
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* परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहिं
दूषन काहू॥
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू॥4॥
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू॥4॥
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दोहा :
* राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु
बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181॥
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181॥
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* परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि
मोर मत नाहीं॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी॥2॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी॥2॥
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* डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर
नाहिन सोचू॥
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥3॥
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥3॥
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* जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन
मनु लावा॥
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥4॥
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥4॥
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दोहा :
* आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥182॥
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥182॥
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चौपाई :
* आन उपाउ मोहि नहिं सूझा। को जिय कै रघुबर
बिनु बूझा॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥1॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥1॥
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* जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन
सकल उपाधी॥
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी॥2॥
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी॥2॥
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* सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन
रघुराऊ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥3॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥3॥
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*तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष
देहु सुबानी॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥4॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥4॥
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दोहा :
* जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा
सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस॥183॥
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस॥183॥
चौपाई :
* भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह
सुधाँ जनु पागे॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥1॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥1॥
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* मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ
बिकल भए भारी॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥2॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥2॥
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* तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम
प्रिय अहहू॥
जो पावँरु अपनी जड़ताईं। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाईं॥3॥
जो पावँरु अपनी जड़ताईं। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाईं॥3॥
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* सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत
नरक निकेता॥
अहि अघ अवगुन नहिं मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई॥4॥
अहि अघ अवगुन नहिं मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई॥4॥
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दोहा :
* अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल
कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥
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