रामचरितमानस से ...अयोध्याकाण्ड
प्रसंग: निषाद
की शंका और सावधानी
निषाद की शंका और
सावधानी
रात भर सई नदी के तीर पर निवास करके
सबेरे वहाँ से चल दिए और सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब
समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर हृदय में विचार करने
लगा-
क्या कारण है जो भरत वन को जा रहे हैं, मन में कुछ कपट भाव अवश्य है। यदि मन में कुटिलता न होती, तो साथ में सेना क्यों ले चले हैं ।
समझते हैं कि छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री
राम को मारकर सुख से निष्कण्टक राज्य करूँगा। भरत ने राजनीति का विचार नहीं किया।
पहले तो कलंक ही लगा था, अब तो जीवन से ही हाथ धोना पड़ेगा ।-सम्पूर्ण
देवता और दैत्य वीर जुट जाएँ, तो भी श्री रामजी
को रण में जीतने वाला कोई नहीं है। भरत जो ऐसा कर रहे हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है? विष की बेलें अमृतफल कभी नहीं फलतीं!
ऐसा विचारकर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति
वालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ। नावों को कब्जे में कर लो और फिर उन्हें
डुबा दो तथा सब घाटों को रोक दो ।
सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग
भरत से युद्ध में लड़कर मरने के लिए तैयार हो जाओ। मैं भरत से सामने लोहा
लूँगा और जीते जी उन्हें गंगा पार न उतरने
दूँगा ।
युद्ध में मरण, फिर गंगाजी का तट, श्री रामजी का काम और क्षणभंगुर शरीर - भरत ,श्री रामजी के भाई और राजा के हाथ से मरना और मैं नीच सेवक-
बड़े भाग्य से ऐसी मृत्यु मिलती है । मैं स्वामी के काम के लिए रण में लड़ाई
करूँगा और चौदहों लोकों को अपने यश से उज्ज्वल कर दूँगा। श्री रघुनाथजी के निमित्त
प्राण त्याग दूँगा। मेरे तो दोनों ही हाथों में आनंद के लड्डू हैं ।
साधुओं के समाज में जिसकी गिनती नहीं और
श्री रामजी के भक्तों में जिसका स्थान नहीं, वह जगत में पृथ्वी का भार होकर व्यर्थ ही जीता है। वह माता के यौवन रूपी वृक्ष
के काटने के लिए कुल्हाड़ा मात्र है ।
(इस प्रकार श्री रामजी के लिए प्राण समर्पण का निश्चय करके
निषादराज विषाद से रहित हो गया और सबका उत्साह बढ़ाकर तथा श्री रामचन्द्रजी का स्मरण
करके उसने तुरंत ही तरकस, धनुष और कवच माँगा ।
चौपाई :
* सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब
निअराने॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥
* कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ
मन माहीं॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥2॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥2॥
* जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक
राजु सुखारी॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥3॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥3॥
* सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न
जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस
करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥4॥
.
दोहा :
* अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब
होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥
.
चौपाई :
* होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै
के ठाटा॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1॥
.
* समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु
छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥2॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥2॥
.
* स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ
भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3॥
* साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ
जासु न रेखा॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥4॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥4॥
दोहा :
* बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥